पत्थर युद्ध : 19 अगस्त को होगा देवीधुरा में बग्वाल ( पत्थर युद्ध ) का आयोजन
(Report - uttarakhandhindisamachar.com)
कुमाऊं - के चम्पावत जिले के मां बाराही धाम देवीधुरा में कत्यूर काल से ही विश्व प्रसिद्ध बग्वाल (पाषाण युद्ध) खेली जाती रही है । कत्यूर काल से वर्तमान तक प्रतिवर्ष चार खाम सात थोक के लोगों द्वारा पूर्ण हर्षोल्लास के साथ इसे मनाया जाता रहा है । इस बार यानी वर्ष 2024 में बग्वाल 19 अगस्त के दिन होगी । बताते चलें कि देवीधुरा में स्थित यह धाम सम्पूर्ण विश्व का एकमात्र वाराही धाम है । रक्षाबंधन के दिन वराह पर्वत के लोग करते हैं पत्थर युद्ध-
यहाँ श्रावणी मास की पूर्णिमा के दिन सम्पूर्ण राष्ट्र भाई - बहन के अटूट संबंध रक्षाबंधन को मनाता है , उसी दिन वराह पर्वत के लोग कत्यूर काल से बग्वाल ( पाषाण युद्ध ) खेलते रहे थे । यहाँ 15 साल से लेकर 90 साल तक के लोग पत्थरवर्षा में भाग लेते हैं ।
बग्वाल में हो चुके हैं कुछ बदलाव -
बीते कुछ वर्षों से हाईकोर्ट नैनीताल के आदेशनुसार प्रशासन द्वारा पत्थर युद्ध का रूपांतरण फल - फूलों की वर्षा द्वारा सम्पन्न कराया जाता है । इसके बावजूद फल - फूलों से चल रही बग्वाल के बीच अचानक पत्थरों का मिश्रण होना ही यहाँ की आस्था है । साक्ष्य औऱ मान्यताएं कहती हैं यहाँ नरबलि होती थी-
साक्ष्यों एवं मान्यताओं को गौर से देखा जाय तो माँ के इस पावन प्रांगण में बग्वाल संभवतः पाषाणकाल से ही प्रचलन में रही होगी । लोकमान्यताएं व मंदिर परिसर के आस - पास पौराणिक साक्ष्य स्पष्ट करते हैं कि , बग्वाल के प्रचलन से पहले खोलीखाड़ दुबाचौड़ में श्रावणी मास की पूर्णिमा के दिन किनावर विधान से तंत्र विद्या साधने हेतु नरबलि की प्रथा प्रचलन में थी , जिसे चार खाम के लोगों द्वारा पूर्ण कराया जाता था । जिसे प्रतिवर्ष हर खाम के लोगों द्वारा बारी - बारी से सम्पन्न किया जाता था । लोकमान्यताओं और इस विधान को सम्पन्न करने वाले लोगों के वंशजों व क्षेत्रीय इतिहास के पुख्ता जानकारों के अनुसार , एक बार नर बलि की बारी चम्याल खाम की थी किन्तु उस खाम में जिस राठ ( वंश ) की बारी थी उस वंश में एक वृद्धा और उसका एक पौत्र ही जीवित थे । जब मंदिर व्यवस्था और उस समय के सम्मानित लोगों ने सभा कर वृद्धा के पौत्र को नरबलि के लिए नामित किया तो वृद्धा अपने वंश को खत्म होता देख काफी व्यथित हुई और माँ वाराही की आराधना करने लगी । कहा जाता है माँ ने उस वृद्धा को बालरूप में दर्शन देकर ताम्र दंडिका दी और स्वयं अदृश्य हो गई । जब वृद्धा ताम्र दंडिका को लेकर मंदिर व्यवस्था और पीठाचार्य के पास गई तो उन्हें आश्चर्य हुआ और ताम्र दडिका को गौर से देखने पर दण्डिका में लिखी लिपि का सार कुछ इस प्रकार बताया जाता है , जिसमें लिखा था - आज के बाद इस धरा पर कोई नरबलि नहीं होगी । मेरे गणों को प्रसन्न करने हेतु कोई अन्य उपाय अपने विवेक से सिद्ध किया जाय । बताया जाता है कि चारों खाम , सात थोक और मंदिर व्यवस्या प्रमुख , पीठाचार्य व सभी प्रमुखों ने अपने विवेक से बग्वाल खेलना सुनिश्चित किया । साथ - साथ शर्त और नियम भी तय किये जिसमें कहा गया कि एक व्यक्ति के बराबर यदि खून निकल आये तो बग्वाल रोक दी जाएंगी । फिर चाहे एक इंसान के शरीर के बराबर रक्त 1 मिनट में निकले या फिर 1 घंटे में । और बग्वाल रुकवाने की जिम्मेदारी माँ के ऊपर छोड़कर सभी पूर्ण आस्था के साथ इस परम्परा को पाषाणकाल से निरंतर निभाने आ रहे हैं । वर्तमान में भी मान्यता के अनुरूप सभी चारखाम , सात थोक के पडतीदारों द्वारा इसे अनेक बाधाओं के बाद भी पूर्ण हर्षोल्लास के साथ मनाया जा रहा है । बर्तमान के परिपेक्ष्य में इसे (बग्वाल को ) कुछ परिवर्तित करके मनाया जा रहा है , जहां पत्थरों के स्थान पर फल , फूलों को मंदिर प्रांगण यानी खोलीखाड़ दुबाचौड़ में रख दिया जाता जिससे बग्वाली वीर बग्वाल को उसी हर्षोल्लास से खेलते हैं लेकिन इसके बावजूद बग्वाली वीर फूलों को छोड़ पत्थर युद्ध पसंद करते हैं । हाईकोर्ट की रोक और क्षेत्रीय प्रशासन की इतनी रोकटोक के बाद बग्वाल समाप्ति के बाद मैदान में मनुष्य के बराबर रक्त देखने को मिलता है । बग्वाल चम्पावत जिले की ही नहीं बल्कि समूचे
उत्तराखंड पहचान व सम्मान के रूप में जानी जाती है । फ़ोटो : पत्थर युद्ध ( बग्वाल ) का एक दृश्य , जिसमें पत्थरों की बरसात साफ तौर पर देखी जा सकती है ।